Sunday, August 18

ग़ज़ल


इस शहर में दूरियों की इतनी जुर्रत हो गई।
ख़ुद से बतियाए भी हमको एक मुद्दत हो गई ॥

अब निवाले की नमक के साथ होगी दोस्ती ,
सब्ज़ियों की  देखिएगा कितनी क़ीमत हो गई ॥

हो कमाई नेक गर तो क्या हज़ारों -सैकड़ों ,
तुमको थोड़े में लगेगा ख़ूब बरकत हो गई ॥

ये शहर है वक़्त इसमें कब ठहरता है जनाब ,
हर किसी के पास इसकी आज क़िल्लत हो गई ॥

हाथ थामे थे हवा का मंज़िलों पे आँख थी ,
पर तभी ये ज़िंदगानी बेमुरव्वत हो गई ॥

तुम न थे तो  ज़िंदगी थी इक उदासी की तरहा ,
तुम मिले तो ज़िंदगानी ख़ूबसूरत हो गई ॥ 

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