Tuesday, January 20


लोहे -पत्थर की बस्ती  में ,फूलों -से जज़्बात कहाँ।
इंसाँ हैं कहलाने भर को ,इंसानों -सी बात कहाँ।।  

वक़्त के साँचे में ढल -ढलकर बदल गई दुनिया सारी ,
अब फूलों-से मुस्काते दिन ,फुलवारी -सी रात  कहाँ।।

खेले चाहे लाख टके के खेल-खिलौनों से  बचपन ,
पर  इनमें माँ की लोरी की मीठी -सी सौगात कहाँ।।  

साँसों -की -साँसों से दूरी ,धड़कन का धड़कन से बैर ,
नाते हों संदल -संदल- से ऐसे अब हालात कहाँ।।  

ठोकर खाने का मतलब है अब औंधे मुँह गिर जाना,
बन जाते थे एक सहारा वो मतवाले हाथ कहाँ।।  

ख़ामोशी करती थी दिल से ,प्यार भरे लफ़्ज़ों में बात ,
दिल से ख़ामोशी सुन लें जो अब ऐसे लम्हात कहाँ।।  

घर के अंदर बैठ अकेला बचपन खेल रहा क्या खेल ,
अब टोली संग गुड्डे -गुड़िया की रचती बारात कहाँ।।
   

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