हैवान निर्भया के गर रह गए जो ज़िंदा।
तड़पेगा देश जैसे ,घायल हुआ परिंदा ॥
उस रात दरिंदों ने ,
मासूमियत को लूटा
अपनी हवस से अस्मत
औ' रूह को खरोंचा
उसकी तड़प पे वहशी ,
ख़ुश होके नाचते थे
हैवानियत से रूह को ,
टुकड़ों में बाँटते थे
तड़पी बहुत वो लेकिन पिघला न इक दरिंदा ॥
हैवान निर्भया के अब रह न जाएँ ज़िंदा ॥
माता -पिता की हसरत ,
परवान चढ़ानी थी
मंज़िल की तरफ़ कल -कल ,
बहता हुआ पानी थी
पंखों से आसमाँ को वो ,
नापना चाहती थी
वो तेज़ हवाओं का ,
रुख़ मोड़ना चाहती थी
अनजान थी यूँ वहशी फाँसेंगे, फेंक फंदा ।
हैवान निर्भया के अब रह न जाएँ ज़िंदा ॥
डॉ. विनोद 'प्रसून'
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